Monday 7 October 2013

चुनौती और प्रत्युत्तर बनाम अर्जुन का प्रज्ञाबोध

मानव के उद्विकास के क्रम मे "अर्नाल्ड टायनबी" का कथन था कि प्रकृति मानव को चुनौती देती है और मानव प्रत्युत्तर के सहारे विकास का रास्ता तय करता है. इस रास्ते की कोई परिभाषा नही है यह सरल और सीमित नही है एक अनुमान के सहारे मनुष्य उस रास्ते पर चल कर तमाम अभीष्ठ लक्ष्यो को प्राप्त करता है. तात्पर्य यह है कि मानव उद्विकास लक्ष्य नही बल्कि अनवरत चलने वाली एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. इस प्रक्रिया मे सामर्थ्यवान ही चुनौतियो को स्वीकार करते है और उन पर विजय प्राप्त कर मानवता को एक नयी दिशा देने का कार्य करते है और सभ्यता को चुनौतियो पर विजय प्राप्त करने के सूत्र दे जाते है जिससे आने वाली पीढिया सुखमय जीवन व्यतीत कर सके. 
ऐसी ही एक चुनौती (धर्म संस्था की स्थापना और अव्यवस्था या अधर्म का नाश) आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व मानवता  के समक्ष आयी थी, जिसका सामना किसी न किसी को करना ही था. इस बार माध्यम अर्जुन थे. जैसा कि हम जानते है कि मानव भावनाओ और व्यक्तिगत कमजोरियो के साथ ही जीता और मरता है जबकि प्रकृति मे एक ही सिद्धांत लागू होता है और वह है 'क्रिया -प्रतिक्रिया सिद्धांत. ऐसे मे अर्जुन  जैसे भावुक  व्यक्ति के लिये धर्म की रक्षा हेतु स्वजनो से युद्ध करना असम्भव प्रतीत हो रहा था और ऐसा लग रहा था कि मानव मात्र के प्रतिनिधि के रूप  मे इस बार मनुष्य प्रकृति द्वारा दी गयी चुनौती का सामना नही कर पायेगा तब   महामानव श्रीकृष्ण ने  अर्जुन से प्रकृति के उस  अत्यंत गूढ रहस्य को बताया जिसके पश्चात अर्जुन अपनी कमजोरियो और भावनाओ से पार जाकर सत्य और धर्म की रक्षा के लिये युद्ध किया और विजय प्राप्त की. वह रहस्य जोकि  श्रीकृष्ण् और अर्जुन के मध्य सम्वाद के रूप मे उद्घाटित हुआ था उसे "श्रीमद्भगवद्गीता" के नाम से आज जाना जाता है. यहा एक बात स्पष्ट कर दें कि मात्र शाब्दिक ज्ञान होने से आप गीता  को पढ सकते है  या पढा सकते है किंतु न तो वास्तविक अर्थ समझ सकते है और न ही किसी अन्य को समझा सकते है क्योकि उसके लिये आप मे अर्जुन जैसी प्रज्ञाबोध का होना अनिवार्य है. प्रज्ञाबोध की स्थिति  तब आती है जब आप यह स्वीकार कर ले कि..... 

"दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्‌ । 
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।।




वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते  ।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।।




न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव  ।।"



अर्जुन ने कहा , हे कृष्ण इन युद्धोन्मत स्वजनों को देखकर मेरे अंग प्रत्यंग में कमजोरी लग रही है , मेरा मूंह सूख रहा है , शरीर में कंपकंपी हो रही है और मेरे रोंगटे खड़े हो रहे है. मेरे हाथ से गांडीव छूटा जा रहा है, त्वचा में जलन हो रही है ,और सर में चक्कर आ रहा है . मेरे लिए खड़ा रहना भी मुश्किल है . हे केशव मुझे तो केवल अमंगल दिख रहा है. 


(ज्ञान का रास्ता असमंजस और संशय से होकर जाता है)

गीता ज्ञानपीठ आपके इसी प्रज्ञाबोध को आपमे अवलोकन कराने मे आपकी सहायता हेतु संकल्पित है.


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