Monday 6 April 2015

Benefits of performing Yagyas

यज्ञ के लाभ

हमारी प्राचीन संस्कृति को अगर एक ही शब्द में समेटना हो तो वह है यज्ञ। 'यज्ञ' शब्द संस्कृत की यज् धातु से बना हुआ है जिसका अर्थ होता है दान, देवपूजन एवं संगतिकरण। भारतीय संस्कृति में यज्ञ का व्यापक अर्थ है, यज्ञ मात्र अग्निहोत्र को ही नहीं कहते हैं वरन् परमार्थ परायण कार्य भी यज्ञ है। यज्ञ स्वयं के लिए नहीं किया जाता है बल्कि सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिए किया जाता है। यज्ञ का प्रचलन वैदिक युग से है, वेदों में यज्ञ की विस्तार से चर्चा की गयी है, बिना यज्ञ के वेदों का उपयोग कहां होगा और वेदों के बिना यज्ञ कार्य भी कैसे पूर्ण हो सकता है। अस्तु यज्ञ और वेदों का अन्योन्याश्रय संबंध है।जिस प्रकार मिट्टी में मिला अन्न कण सौ गुना हो जाता है, उसी प्रकार अग्नि से मिला पदार्थ लाख गुना हो जाता है। अग्नि के सम्पर्क में कोई भी द्रव्य आने पर वह सूक्ष्मीभूत होकर पूरे वातावरण में फैल जाता है और अपने गुण से लोगों को प्रभावित करता है। इसको इस तरह समझ सकते हैं कि जैसे लाल मिर्च को अग्नि में डालने पर वह अपने गुण से लोगों को प्रताडि़त करती है इसी तर  सामग्री में उपस्थित स्वास्थ्यवद्र्धक औषधियां जब यज्ञाग्नि के सम्पर्क में आती है तब वह अपना औषधीय प्रभाव व्यक्ति के स्थूल व सूक्ष्म शरीर पर दिखाती है और व्यक्ति स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करता चला जाता है। मनुष्य के शरीर में स्नायु संस्थान, श्वसन संस्थान, पाचन संस्थान, प्रजनन संस्थान, मूत्र संस्थान, कंकाल संस्थान, रक्तवह संस्थान आदि सहित अन्य अंग होते हैं उपरिलिखित हवन सामग्री में इन सभी संस्थानों व शरीर के सभी अंगों को स्वास्थ्य प्रदान करने वाली औषधियां मिश्रित हैं। यह औषधियां जब यज्ञाग्नि के सम्पर्क में आती हैं तब सूक्ष्मीभूत होकर वातावरण में व्याप्त हो जाती हैं जब मनुष्य इस वातावरण में सांस लेता है तो यह सभी औषधियां अपने-अपने गुणों के अनुसार हमारे शरीर को स्वास्थ्य लाभ प्रदान करती हैं। इसके अलावा हमारे मनरूपी सूक्ष्म शरीर को भी स्वस्थ रखती हैं।यज्ञ की महिमा अनन्त है। यज्ञ से आयु, आरोग्यता, तेजस्विता, विद्या, यश, पराक्रम, वंशवृद्धि, धन-धन्यादि, सभी प्रकार की राज-भोग, ऐश्वर्य, लौकिक एवं पारलौकिक वस्तुओं की प्राप्ति होती है। प्राचीन काल से लेकर अब तक रुद्रयज्ञ, सूर्ययज्ञ, गणेशयज्ञ, लक्ष्मीयज्ञ, श्रीयज्ञ, लक्षचंडी भागवत यज्ञ, विष्णुयज्ञ, ग्रह-शांति यज्ञ, पुत्रेष्टि, शत्रुंजय, राजसूय, ज्योतिष्टोम, अश्वमेध, वर्षायज्ञ, सोमयज्ञ, गायत्री यज्ञ इत्यादि अनेक प्रकार के यज्ञ होते चले आ रहे हैं। हमारा शास्त्र, इतिहास, यज्ञ के अनेक चमत्कारों से भरा पड़ा है। जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी सोलह-संस्कार यज्ञ से ही प्रारंभ होते हैं एवं यज्ञ में ही समाप्त हो जाते हैं।क्योंकि यज्ञ करने से व्यष्टि नहीं अपितु समष्टि का कल्याण होता है। अब इस बात को वैज्ञानिक मानने लगे हैं कि यज्ञ करने से वायुमंडल एवं पर्यावरण में शुद्धता आती है। संक्रामक रोग नष्ट होते हैं तथा समय पर वर्षा होती है। यज्ञ करने से सहबन्धुत्व की सद्भावना के साथ विकास में शांति स्थापित होती है।यज्ञ को वेदों में 'कामधुन' कहा गया है अर्थात् मनुष्य के समस्त अभावों एवं बाधाओं को दूर करने वाला। 'यजुर्वेद' में कहा गया है कि जो यज्ञ को त्यागता है उसे परमात्मा त्याग देता है। यज्ञ के द्वारा ही साधारण मनुष्य देव-योनि प्राप्त करते हैं और स्वर्ग के अधिकारी बनते हैं। यज्ञ को सर्व कामना पूर्ण करने वाली कामधेनु और स्वर्ग की सीढ़ी कहा गया है। इतना ही नहीं यज्ञ के जरिए आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर प्राप्ति भी संभव है।यज्ञ भारतीय संस्कृति का आदि प्रतीक है। शास्त्रों में गायत्री को माता और यज्ञ को पिता माना गया है। कहते हैं इन्हीं दोनों के संयोग से मनुष्य का दूसरा यानी आध्यात्मिक जन्म होता है जिसे द्विजत्व कहा गया है। एक जन्म तो वह है जिसे इंसान शरीर के रूप में माता-पिता के जरिए लेता है। यह तो सभी को मिलता है लेकिन आत्मिक रूपांतरण द्वारा आध्यात्मिक जन्म यानी दूसरा जन्म किसी किसी को ही मिलता है। शारीरिक जन्म तो संसार में आने का बहाना मात्र है लेकिन वास्तविक जन्म तो वही है जब इंसान अपनी अंत: प्रज्ञा से जागता है, जिसका एक माध्यम है 'यज्ञ'।यज्ञ की पहचान है 'अग्नि' या यूं कहें 'अग्नि', यज्ञ का अहम हिस्सा है जो कि प्रतीक है शक्ति की, ऊर्जा की, सदा ऊपर उठने की। शास्त्रों में अग्नि को ईश्वर भी कहा गया है इसी अग्नि में ताप भी छिपा है तो भाप भी छिपी है। यही अग्नि जलाती भी है तो प्रकाश भी देती है। इसी अग्नि के माध्यम से जल भी बनता है और जल मात्र मानव जीवन के लिए ही नहीं बल्कि पूरी प्रकृति के लिए वरदान है, अमृत है। इसीलिए अग्नि इतनी पूजनीय है।एक प्रकार से अग्नि ही ईश्वर है तभी तो अग्नि इतनी पूजनीय है। यही कारण है कि हर धर्म एवं सम्प्र्रदाय में अग्नि का इतना महत्व है तथा उसे किसी न किसी रूप में जलाया व पूजा जाता है। और यज्ञ भी एक तरह की पूजा है। यदि यज्ञ में जलती अग्नि ईश्वर है तो अग्नि का मुख ईश्वर का मुख है। यज्ञ में कुछ भी आछूत करने का अर्थ है परमात्मा को भोजन कराना। इसलिए अग्नि को जो कुछ खिलाया जाता है वह सही अर्थों में ब्राहृभोज है। जिस तरह भगवान सबको खिलाता है उसी तरह यज्ञ के जरिए इंसान भगवान को खिलाता है।यज्ञ परमात्मा तक पहुंचने का सोपान है। उसका सान्निध्य पाने का माध्यम है। यज्ञ में प्रकट अग्नि साक्षात् भगवान है। इसीलिए यज्ञ में अग्नि को प्रज्जवलित करने के लिए तथा उसे बनाए रखने के लिए यज्ञ या हवन सामग्री का भी विशेष स्थान है। यह सामग्री न केवल भगवान के भोजन का हिस्सा बनती है बल्कि इससे उठने वाला धुआं वायुमंडल को शुद्ध करता है।
speakingtree.in से साभार

Saturday 4 April 2015

यज्ञ का महत्व


यज्ञ का महत्व
 

ऋषियों द्वारा ईश्वरीय चिंतन में निरत जीवन पद्धति खोजी गई जिसमें यज्ञ से मानव मन में स्थापित वांछित लाभ पाया जा सकता है। इस विधि व्यवस्था को त्रिकाल संध्या के रूप में ऋषियों ने भी अपनाया और यज्ञ के अध्यात्म को अवतारी सत्ताओं ने भी स्वीकारा।


यज्ञं जनयन्त सूरयः। -ऋग्वेद 10/66/2
हे विद्वानों! संसार में यज्ञ का प्रचार करो।

अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः। -अथर्ववेद 9.15.14
यह यज्ञ ही समस्त विश्व-ब्रह्मांड का मूल केंद्र है।

 
प्रांचं यज्ञं प्रणयता सखायः। -ऋग्वेद 10/101/2
प्रत्येक शुभकार्य को यज्ञ के साथ आरंभ करो।

सर्वा बाधा निवृत्यर्थं सर्वान्देवान्यजेद् बुधः। -शिवपुरा
सभी बाधाओं की निवृत्ति के लिए बुद्धिमान पुरुषों को देवताओं की यज्ञ के द्वारा पूजा करनी चाहिए।

यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म। -शतपथ ब्राह्मण 1.7.1.5
यज्ञ ही संसार का सर्वश्रेष्ठ शुभ कार्य है।तस्मात्सर्वगतं ब्रह्मा नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् -गीता 3.15
यज्ञ
में सर्वव्यापी सर्वांतर्यामी परमात्मा का सदैव वास होता है।

Monday 19 January 2015

karma siddhanta

 
श्रीमद्भागवत गीता का मुख्‍य सन्‍देश है- ‘कर्मण्‍येवाऽधिकारस्‍ते मा फलेषु कदाचन्’। इसी को सरल भाषा में कहा गया है- ‘कर्म किये जा फल की इच्‍छा मत कर रे इन्‍सान, जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान’। आश्‍चर्य का विषय तो यह है कि वर्तमान युग में जहाँ एक ओर गीता तथा अन्‍य शास्‍त्रों का प्रचार और शिक्षा का प्रसार बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर अन्‍धविश्‍वास बढ़ता जा रहा है। ज्‍योतिष, वास्‍तु, टोन-टोटके और नाना प्रकार के उपायों में जितना समय, ऊर्जा, धन तथा ध्‍यान लगाया जा रहा है वही यदि अपने कर्तव्‍य कर्मों में लगा दिया जाये तो सम्‍भव है कि हमारा कर्मफल अर्थात् हमारा भाग्‍य सचमुच ही बदल जाये।
यहाँ पर एक बात स्‍पष्‍ट कर दें कि हम भाग्‍य अथवा प्रारब्‍ध के अस्तित्‍व को नहीं नकार रहे बल्कि हम तो उसके स्‍वरूप को समझ कर उसका उपयोग करने की बात कह रहे हैं। इस बात को अच्‍छी तरह से समझने के लिये एक दृष्‍टान्‍त लेते हैं- एक बार एक गरीब लकड़हारा सूखी लकडि़यों की तलाश में जंगल में भटक रहा था। साथ में बोझा ढोने के लिये उसका गधा भी था। लकडि़याँ बटोरते-बटोरते उसे पता ही नहीं चला कि दिन कब ढल गया। शाम का अंधेरा तेजी से बढ़ता जा रहा था लेकिन वह अपने गाँव से बहुत दूर निकल आया था और उधर मौसम भी बिगड़ रहा था। ऐसे में वापस गाँव पहुँचना सम्‍भव न था, इसलिये वह उस जंगल में आसरा ढूंढने लगा। अचानक उसे एक साधू की कुटिया नजर आई। वह खुशी-खुशी अपने गधे के साथ वहाँ जा पहुँचा और रात काटने के लिये साधू से जगह माँगी। साधू ने बड़े प्‍यार से उसका स्‍वागत किया और सोने की जगह के साथ भोजन-पानी की व्‍यवस्‍था भी कर दी। वह लकड़हारा सोने की तैयारी करने लगा लेकिन तभी एक और समस्‍या खड़ी हो गई।
दरअसल उसने काफी ज्‍यादा लकड़ी इकट्ठा कर ली थी और उसे बाँधने के लिये उसने सारी रस्‍सी इस्‍तेमाल कर ली थी। यहाँ तक कि अब उसके पास गधे को बाँधने के लिये भी रस्‍सी नहीं बची थी। उसकी परेशानी देखकर वह साधू उसके पास आये और उसे एक बड़ी रोचक युक्ति बताई। उन्‍होंने कहा कि गधे को बाँधने के लिये रस्‍सी की कोई जरूरत नहीं, बस उसके पैरों के पास बैठकर रोज की तरह बाँधने का क्रम पूरा कर लो। इस झूठ-मूठ के दिखावे को गधा समझ नहीं पायेगा और सोचेगा कि उसे बाँध दिया गया है। फिर वह कहीं जाने के लिये पैर नहीं उठायेगा।
लकड़हारे ने और कोई चारा न देखकर घबराते-सकुचाते साधू की बात मान ली और गधे को बाँधने की दिखावा करके भगवान से उसकी रक्षा की प्रार्थना करता हुआ सो गया। रात बीती, सुबह हुई, मौसम भी साफ हो गया। जंगल में पशु-पक्षियों की हलचल शुरू हो गई। आहट से लकड़हारे की नींद खुल गई। जागते ही उसे गधे की चिन्‍ता हुई और वह उसे देखने के लिये बाहर भागा। देखा तो गधा बिल्‍कुल वहीं खड़ा था जहाँ रात उसने छोड़ा था। लकड़हारा बड़ा खुश हुआ और साधू को धन्‍यवाद करके अपने गधे को साथ लेकर जाने लगा लेकिन यह क्‍याॽ
गधा तो अपनी जगह से हिलने को तैयार ही नहीं। लकड़हारे ने बड़ा जोर लगाया, डाँटा-डपटा भी लेकिन गधा तो जैसे अपनी जगह पर जमा हुआ था। उसकी मुश्किल देखकर साधू ने आवाज लगाकर कहा- अरे भई, गधे को खोल तो लो। लकड़हारा रात की बात भूल चुका था, बोला- महाराज, रस्‍सी तो बाँधी ही नहीं फिर खोलूं क्‍याॽ साधू बोले- रस्‍सी छोड़ो, बन्‍धन खोलो जो रात को डाले थे। जैसे बाँधने का दिखावा किया था वैसे ही खोलने का भी करना पड़ेगा। उलझन में पड़े लकड़हारे ने सुस्‍त हाथों से रस्‍सी खोलने का दिखावा किया और गधा तो साथ ही चल पड़ा। आश्‍चर्यचकित लकड़हारे को समझाते हुये साधू ने कहा- कर्म तो कर्म हैं चाहे वह स्‍थूल हों या सूक्ष्‍म। हम भले ही अपने कर्मों को भूल जायें पर उनका फल तो सामने आता ही है और फिर उसका भुगतान करने के लिये, उसे काटने के लिये नया कर्म करना पड़ता है। वहाँ कोई मनमर्जी या जोर-जबर्दस्‍ती नहीं चलती। कर्म मात्र में ही मनुष्‍य का अधिकार है, कर्मानुसार फल तो प्रकृति स्‍वयं ही जुटा देती है किन्‍तु फल की प्राप्ति पुन: कर्म की प्रेरणा देती है। अत: एक प्राणी का कर्तव्‍य है कि प्रत्‍येक कर्म विचार पूर्वक तथा जिम्‍मेदारी के साथ करे। कर्म के रहस्‍य को समझ कर ही हम सुखी हो सकते हैं अन्‍यथा पग-पग पर हमें उलझन का ही सामना करना पड़ेगा।
                                                                                                      साभार :स्‍वामी सूर्येन्‍दु पुरी (Shabad Surati Sangam Ashram)